"किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते, सवाल सारे ग़लत थे जवाब क्या देते"
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"किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते, सवाल सारे ग़लत थे जवाब क्या देते"

Muneer Niyazi Shayari: मुनीर नियाजी मीर, ग़ालिब और सिराज औरंगाबादी को पसंद करते थे. उनकी नज्म 'हमेशा देर कर देता हूं मैं' बहुत मशहूर है. पेश हैं मुनीर नियाजी के बेहतरीन शेर.

"किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते, सवाल सारे ग़लत थे जवाब क्या देते"

Muneer Niyazi Shayari: मुनीर नियाजी उर्दू के बेहतरीन शायर हैं. वह 19 अप्रैल 1928 को होशियारपुर, पंजाब में पैदा हुए. मुनीर एक साल के थे जब उनके वालिद का इंतेकाल हो गया. बचपन में वह मंटो के अफसाने और मीरा जी की नज्में पढ़ते थे. यहीं से उन्हें लिखने का शौक पैदा हुआ. मुनीर नियाजी ने कई अख्बारों और रेडियों के लिए काम किया. उन्होंने 60 के दशक में फिल्मों के लिए गाने लिखे. मुनीर दिखने में काफी खूबसूरत थे, इसलिए उन्हें कई औरतों ने पसंद किया. उनके मुताबिक उन्हें 40 बार इश्क हुआ.

ज़िंदा लोगों की बूद-ओ-बाश में हैं...
मुर्दा लोगों की आदतें बाक़ी 

उठा तू जा भी चुका था अजीब मेहमाँ था...
सदाएँ दे के मुझे नींद से जगा भी गया 

ऐसा सफ़र है जिस की कोई इंतिहा नहीं...
ऐसा मकाँ है जिस में कोई हम-नफ़स नहीं 

देखे हुए से लगते हैं रस्ते मकाँ मकीं...
जिस शहर में भटक के जिधर जाए आदमी 

वो जो मेरे पास से हो कर किसी के घर गया...
रेशमी मल्बूस की ख़ुश्बू से जादू कर गया 

सुन बस्तियों का हाल जो हद से गुज़र गईं...
उन उम्मतों का ज़िक्र जो रस्तों में मर गईं 

लाई है अब उड़ा के गए मौसमों की बास...
बरखा की रुत का क़हर है और हम हैं दोस्तो 

शायद कोई देखने वाला हो जाए हैरान...
कमरे की दीवारों पर कोई नक़्श बना कर देख 

अब किसी में अगले वक़्तों की वफ़ा बाक़ी नहीं...
सब क़बीले एक हैं अब सारी ज़ातें एक सी 

मैं बहुत कमज़ोर था इस मुल्क में हिजरत के बाद...
पर मुझे इस मुल्क में कमज़ोर-तर उस ने किया 

ख़ुश्बू की दीवार के पीछे कैसे कैसे रंग जमे हैं...
जब तक दिन का सूरज आए उस का खोज लगाते रहना

मिरे पास ऐसा तिलिस्म है जो कई ज़मानों का इस्म है...
उसे जब भी सोचा बुला लिया उसे जो भी चाहा बना दिया 

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