Shaniwar Upay: इस स्त्रोत से राजा दशरथ ने शनिदेव को किया था प्रसन्न, साढ़ेसाती और ढैय्या से मिलेगी मुक्ति
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Shaniwar Upay: इस स्त्रोत से राजा दशरथ ने शनिदेव को किया था प्रसन्न, साढ़ेसाती और ढैय्या से मिलेगी मुक्ति

Shaniwar ke Upay: शनिवार का दिन शनिदेव को समर्पित होता है. आज के दिन शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए इस स्तोत्र का पाठ करने से आपको लाभ मिल सकता है.   

 

Shaniwar Ke Upay

Shaniwar Ke Upay: आज कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि है. आज दिन शनिवार है. हिंदू धर्म में यह दिन न्याय के देवता कहे जाने वाले शनिदेव को समर्पित होता है. इस दिन शनिदेव की पूजा-अर्चना की जाती है. मान्यता है कि जिस व्यक्ति से शनिदेव प्रसन्न हो जाएं, उसके जीवन में कभी कोई संकट नहीं आता. वह अपने भक्तों के साथ कोई अन्याय नहीं होने देते. शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए शनिवार के दिन शनि स्त्रोत का पाठ कर सकते हैं. ऐसा करने से साढ़ेसाती और ढैय्या जैसी समस्या से छुटकारा मिल जाता है. शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए राजा दशरथ ने एक स्तोत्र का पाठ किया था, जिसे दशरथकृत शनि स्तोत्र कहा जाता है. इसका पाठ कर शनिदेव का आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं. पाठ के बाद शनि देव के मंदिर में जाकर तिल का तेल/सरसों का तेल चढ़ाना चाहिए. इसके साथ ही तिल का दान करना चाहिए. 

दशरथकृत शनि स्तोत्र (Dashratha Shani Sotra)
दशरथ उवाच:

प्रसन्नो यदि मे सौरे ! एकश्चास्तु वरः परः ॥

रोहिणीं भेदयित्वा तु न गन्तव्यं कदाचन् ।
सरितः सागरा यावद्यावच्चन्द्रार्कमेदिनी ॥

याचितं तु महासौरे ! नऽन्यमिच्छाम्यहं ।
एवमस्तुशनिप्रोक्तं वरलब्ध्वा तु शाश्वतम् ॥

प्राप्यैवं तु वरं राजा कृतकृत्योऽभवत्तदा ।
पुनरेवाऽब्रवीत्तुष्टो वरं वरम् सुव्रत ॥

दशरथकृत शनि स्तोत्र:
नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च ।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ॥1॥

नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते ॥2॥

नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम: ।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते ॥3॥

नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम: ।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने ॥4॥

नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते ।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ॥5॥

अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते ।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ॥6॥

तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च ।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ॥7॥

ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे ।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ॥8॥

देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा: ।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत: ॥9॥

प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे ।
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ॥10॥

दशरथ उवाच:
प्रसन्नो यदि मे सौरे ! वरं देहि ममेप्सितम् ।
अद्य प्रभृति-पिंगाक्ष ! पीडा देया न कस्यचित् ॥

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